Sunday 28 November 2010

सुनहरी पंक्तियाँ (गुलज़ार)

मैं कुछ कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको
तेरा चेहरा भी धुंधलाने लगा है अब तखय्युल में  
तेरे खत आते रहते थे
तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी
तेरी आवाज़ को कागज़ पे रखके
मैंने चाहा था की पिन कर लूँ
की जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी एलबम में |

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने

काले घर में सूरज रख के तुमने शायद सोचा था..
मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने इक चिराग जला कर
अपना रास्ता खोल लिया

तुमने एक समंदर हाथ में लेकर मुझ पर ढेल दिया
मैंने नूँह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया

मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह देकर तुमने समझा था, अब तो मात हुई
मैंने जिस्म का खोल उतार कर सौंप दिया और रूह बचा ली

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी ...
 


मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बाँध के और सिर कोई जोड़ के उसमे 
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
एक गाँठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई

मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहे
साफ़ नजर आती है मेरे यार जुलाहे |

   
बस्ता फ़ेंक के लोची भागा, रोशनआरा बाग़ की जानिब
चिल्लाता , चल गुड्डी चल
पक्के जामुन टपकेंगे

आँगन की रस्सी से माँ ने कपड़े खोले
और तंदूर पे लाके टीन की चादर डाली

सारे दिन के सूखे पापड़
लच्छी ने लिपटा ई चादर
'
बच गई रब्बा' किया कराया धुल जाना था'

ख़ैरु ने अपने खेतों की सूखी मिट्टी
झुर्रियों वाले हाथ में ले कर
भीगी-भीगी आँखों से फिर ऊपर देखा

झूम के फिर उट्ठे हैं बादल
टूट के फिर मेंह बरसेगा |

तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी

इलायची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी कॉफी देता है
गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट
गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...

कभी कभी जब उतरती हैं चील शाम की छत से
थकी थकी सी ज़रा देर लॉन में रुककर
सफेद और गुलाबी मसूरे के पौधों में घुलने लगती है
कि जैसे बर्फ का टुकड़ा पिघलता जाए विहस्की में
मैं स्कार्फ ..... गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन कर अब भी मैं तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ

तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी.

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है..

कभी कभी मेरे दिल में
ख्याल आता हैं
कि ज़िंदगी तेरी जुल्फों कि नर्म
छांव में गुजरने पाती
तो शादाब हो भी सकती थी।
यह रंज-ओ-ग़म कि सियाही
जो दिल पे छाई हैं
तेरी नज़र कि शुओं मैं
खो भी सकती थी।
मगर यह हो न सका
और अब ये आलम हैं
कि तू नहीं,
तेरा ग़म तेरी जुस्तजू भी नहीं।
गुज़र रही हैं कुछ इस तरह
ज़िंदगी जैसे,
इससे किसी के सहारे कि
आरजू भी नहीं.
न कोई राह, न मंजिल,
न रौशनी का सुराग
भटक रहीं है अंधेरों मैं
ज़िंदगी मेरी.
इन्ही अंधेरों मैं रह जाऊँगा
कभी खो कर
मैं जानता हूँ मेरी हम-नफस,
मगर यूंही
कभी कभी मेरे दिल मैं
ख्याल आता है..

गुलज़ार की खूबसूरत त्रिवेणियाँ ..

त्रिवेणी क्या है ??त्रिवेणी के बारे में गुलजार लिखते हैं:-

त्रिवेणी न तो मसल्लस है,ना हाइकू,ना तीन मिसरों में कही एक नज्‍़म। इन तीनों ‘फ़ार्म्ज़’में एक ख्‍़याल और एक इमेज का तसलसुल मिलता है। लेकिन त्रिवेणी का फ़र्क़ इसके मिज़ाज का फर्क है। तीसरा मिसरा पहले दो मिसरों के मफ़हूम को कभी निखार देता है,कभी इजा़फा करता है या उन पर ‘कमेंट’ करता है। त्रिवेणी नाम इस लिये दिया गया था कि संगम पर तीन नदियां मिलती हैं। गंगा ,जमना और सरस्वती। गंगा और जमना के धारे सतह पर नज़र आते हैं लेकिन सरस्वती जो तक्षिला(तक्षशिला) के रास्ते बह कर आती थी,वह ज़मीन दोज़ हो चुकी है। त्रिवेणी के तीसरे मिसरे का काम सरस्वती दिखाना है जो पहले दो मिसरों में छुपी हुई है।


कोई सूरत भी मुझे पूरी नजर नहीं आती
आँख के शीशे चटके हुए हैं कब से

टुकडो टुकडो में सभी लोग मिले हैं मुझको !



आप के खातिर अगर हम लूट भी लें आसमां
क्या मिलेगा चंद चमकीले शीशे तोड़ के !

चाँद चुभ जाएगा ऊँगली में खून आ जायेगा..



कभी-कभी बाजार में यूँ भी हो जाता है
कीमत ठीक थी ,जेब में इतने दाम नहीं थे

ऐसे ही एक बार मैं तुमको हार आया था !




वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर एक दिन,
जो मुड के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ ना था

फटी हो जेब तो कुछ सिक्के भी खो जाते हैं !



लोग मेलों में भी गुम होकर मिले हैं भला
दास्तानो के किसी दिलचस्प एक मोड़ पर

यूँ हमेशा के लिए भी क्या बिछड़ता है कोई !




जिंदगी क्या है जानने के लिए,
जिंदा रहना बहुत जरुरी है

आज तक कोई रहा तो नहीं !



इस तरह ख्याल तेरा जल उठा की बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में..

अब फूंक भी दो,वर्ना ये ऊँगली जलाएगा !



तमाम सफ़हे किताबों के फडफडाने लगे
हवा धकेल के दरवाजा आ गयी घर में

कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!



क्या पता कब कहाँ मारेगी?
बस कि मैं जिंदगी से डरता हूँ

मौत का क्या है,एक बार मारेगी!






रात के पद पे कल ही तो उसे देखा था
चाँद बस गिरने ही वाला था फलक से पाक कर

सूरज आया था,जरा उसकी तालशी लेना !

Tuesday 9 November 2010

एक दिन सवेरे-सवेरे..

एक दिन सवेरे-सवेरे
सुरमई से अंधेर की चादर हटा के एक प्रभात के तकिये से
सूरज ने जो सर उठाया
तो देखा की दिल की वादी में चाहत का मौसम है और यादों की डालियों पर
अनगिनत बीते लम्हों की कलियाँ महकने लगी हैं
अनकही अनसुनी आरज़ू आधी सोयी आधी जागी हुई
आँखें मलते हुए देखती है लहर दर लहर मौज दर मौज बहती हुई
जिंदगी जैसे हर पल नयी है
और फिर भी वही हाँ वही जिंदगी जिसके दामन में एक मोहब्बत भी है
कोई हसरत भी है पास आना भी है, दूर जाना भी है, और ये एहसास है
वक्त झरने सा बहता हुआ जा रहा है
ये कहता हुआ दिल की वादी में चाहत का मौसम है और
यादों की डालियों पर अनगिनत बीते लम्हों की कलियाँ महकने लगी है|
-(वीर-जारा)

Monday 8 November 2010

मधुशाला की कुछ पक्तियाँ..

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।

हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।
कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।

बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।

मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला!
मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ,
सिंधँु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।

लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।

याद न आए दूखमय जीवन इससे पी लेता हाला,
जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है,
पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।

ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।

आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।

हाथों में आने-आने में, हाय फिसल जाता प्याला ,
अधरों पर आने-आने में, हाय, ढुलक जाती हाला ;
दुनिया वालो, आकर मेरी किस्मत की खूबी देखो ,
रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-मिलते मधुशाला |

मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,
यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला,
मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में,
'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।

मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिंिबत करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!

अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!

कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।

We strive each day to find our path in life, our goal. We travel on it to reach our preordained destination. But even when we feel that we have attained it, we must strive for a further destination. That will be our truest Madhushala !