मैं कुछ कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको
तेरा चेहरा भी धुंधलाने लगा है अब तखय्युल में
तेरे खत आते रहते थे
तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी
तेरी आवाज़ को कागज़ पे रखके
मैंने चाहा था की पिन कर लूँ
की जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी एलबम में |
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख के तुमने शायद सोचा था..
मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने इक चिराग जला कर
अपना रास्ता खोल लिया
तुमने एक समंदर हाथ में लेकर मुझ पर ढेल दिया
मैंने नूँह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया
मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह देकर तुमने समझा था, अब तो मात हुई
मैंने जिस्म का खोल उतार कर सौंप दिया और रूह बचा ली
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी ...
काले घर में सूरज रख के तुमने शायद सोचा था..
मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने इक चिराग जला कर
अपना रास्ता खोल लिया
तुमने एक समंदर हाथ में लेकर मुझ पर ढेल दिया
मैंने नूँह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया
मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह देकर तुमने समझा था, अब तो मात हुई
मैंने जिस्म का खोल उतार कर सौंप दिया और रूह बचा ली
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी ...
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बाँध के और सिर कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
एक गाँठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहे
साफ़ नजर आती है मेरे यार जुलाहे |
बस्ता फ़ेंक के लोची भागा, रोशनआरा बाग़ की जानिब
चिल्लाता , चल गुड्डी चल
पक्के जामुन टपकेंगे
आँगन की रस्सी से माँ ने कपड़े खोले
और तंदूर पे लाके टीन की चादर डाली
सारे दिन के सूखे पापड़
लच्छी ने लिपटा ई चादर
'बच गई रब्बा' किया कराया धुल जाना था'
ख़ैरु ने अपने खेतों की सूखी मिट्टी
झुर्रियों वाले हाथ में ले कर
भीगी-भीगी आँखों से फिर ऊपर देखा
झूम के फिर उट्ठे हैं बादल
टूट के फिर मेंह बरसेगा |
चिल्लाता , चल गुड्डी चल
पक्के जामुन टपकेंगे
आँगन की रस्सी से माँ ने कपड़े खोले
और तंदूर पे लाके टीन की चादर डाली
सारे दिन के सूखे पापड़
लच्छी ने लिपटा ई चादर
'बच गई रब्बा' किया कराया धुल जाना था'
ख़ैरु ने अपने खेतों की सूखी मिट्टी
झुर्रियों वाले हाथ में ले कर
भीगी-भीगी आँखों से फिर ऊपर देखा
झूम के फिर उट्ठे हैं बादल
टूट के फिर मेंह बरसेगा |
तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
इलायची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी कॉफी देता है
गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट
गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...
कभी कभी जब उतरती हैं चील शाम की छत से
थकी थकी सी ज़रा देर लॉन में रुककर
सफेद और गुलाबी मसूरे के पौधों में घुलने लगती है
कि जैसे बर्फ का टुकड़ा पिघलता जाए विहस्की में
मैं स्कार्फ ..... गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन कर अब भी मैं तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी.
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
इलायची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी कॉफी देता है
गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट
गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...
कभी कभी जब उतरती हैं चील शाम की छत से
थकी थकी सी ज़रा देर लॉन में रुककर
सफेद और गुलाबी मसूरे के पौधों में घुलने लगती है
कि जैसे बर्फ का टुकड़ा पिघलता जाए विहस्की में
मैं स्कार्फ ..... गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन कर अब भी मैं तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी.
बहुत बहुत धन्यवाद इन नायाब रचनाओं को पढवाने के लिये। बेहद सुन्दर प्रस्तुति। बधाई।
ReplyDeleteदस कहानियां की सभी नज्में गुलज़ार साहब की बेहतरीन नज्मों में से है...
ReplyDeleteइस नज़्म में - "मैं कुछ भूलता जाता हूँ तुझे.." अंतिम के लाइन भी जोड़ देते आप...मुझे वो लाइन सबसे ज्यादा पसंद है
"तेरा बे को दबा कर बात करना
वॉव पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम जाता था
बहुत दिन हो गए देखा नहीं ना खत मिला कोई
बहुत दिन हो, गए सच्ची
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं"
:)
thanks a lot....kaphi achchi rachnayen padhne ko mili...
ReplyDeleteबेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteहिन्दी को ऐसे ही सृजन की उम्मीद ।
धन्यवाद....
satguru-satykikhoj.blogspot.com
gulzaar sahaab ki behtareen collection ... thanks for sharing ...
ReplyDeleteमुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे
ReplyDeleteअक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बाँध के और सिर कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
एक गाँठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहे
साफ़ नजर आती है मेरे यार जुलाहे |
बहुत ही अच्छी प्रस्तुती के लिए बधाई स्वीकारें...और इससे अवगत करवाने के लिए धन्यवाद |
आपका मेरे ब्लॉग पर हार्दिक अभिनन्दन
pliz join my blog........
बहुत अच्छा
ReplyDeleteतेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ReplyDeleteना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी.
Hmmmmm....behad achhee rachana!
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ReplyDeleteGood efforts. All the best for future posts. I have bookmarked you. Well done. I read and like this post. Thanks.
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ReplyDeleteThe post is very informative. It is a pleasure reading it. I have also bookmarked you for checking out new posts.
ReplyDeleteThanks for writing in such an encouraging post. I had a glimpse of it and couldn’t stop reading till I finished. I have already bookmarked you.
ReplyDeleteमुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे
ReplyDeleteअक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बाँध के और सिर कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
एक गाँठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
वाह बहुत खूब
Bahut Khoob
DeleteBhaii
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