Sunday 28 November 2010

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है..

कभी कभी मेरे दिल में
ख्याल आता हैं
कि ज़िंदगी तेरी जुल्फों कि नर्म
छांव में गुजरने पाती
तो शादाब हो भी सकती थी।
यह रंज-ओ-ग़म कि सियाही
जो दिल पे छाई हैं
तेरी नज़र कि शुओं मैं
खो भी सकती थी।
मगर यह हो न सका
और अब ये आलम हैं
कि तू नहीं,
तेरा ग़म तेरी जुस्तजू भी नहीं।
गुज़र रही हैं कुछ इस तरह
ज़िंदगी जैसे,
इससे किसी के सहारे कि
आरजू भी नहीं.
न कोई राह, न मंजिल,
न रौशनी का सुराग
भटक रहीं है अंधेरों मैं
ज़िंदगी मेरी.
इन्ही अंधेरों मैं रह जाऊँगा
कभी खो कर
मैं जानता हूँ मेरी हम-नफस,
मगर यूंही
कभी कभी मेरे दिल मैं
ख्याल आता है..

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