Saturday 24 August 2013

वो कमरा याद आता है


मैं जब भी ज़िन्दगी की  
चिलचिलाती धूप में तपकर
मै जब भी
दुसरों के और खुद के झूठ से थककर
मैं सबसे लड़ के खुद से हार के
जब भी उस इक कमरे में जाता था
वो हलके और गहरे कत्थई रंगों का इक कमरा
वो बेहद मेहरबाँ कमरा
जो अपनी नर्म मुट्ठी में मुझे ऐसे छुपा लेता था
जैसे कोई माँ बच्चे को आँचल में छुपा ले
प्यार से डाँटे
ये क्या आदत है
जलती दोपहर में मारे मारे घुमते हो तुम
वो कमरा याद आता है
दबीज़ और ख़सा भारी
कुछ ज़रा मुशकिल से खुलने वाला
वो शीशम का दरवाज़ा़
कि जैसे कोई अक्खड़ बाप
अपने खुरदुरे सीने में शफ़्क़त के समंदर को छुपाये हो
वो कुर्सी और उसके साथ वो जुड़वा बहन उसकी
वो दोनो दोस्त थीं मेरी
वो एक गुस्ताख़ मुँहफट आईना
जो दिल का अच्छा था
वो बेहंगम सी अलमारी
जो कोने में खड़ी इक बुड़ी अन्ना की तरह
आईने को तन्बीह करती थी
वो एक गुलदान
नन्हा-सा
बहुत शैतान
उन दोनों पे हँसता था
दरीचा
या ज़हानत से भरी इक मुस्कुराहट
और दरीचे पर झुकी वो बेल
कोई सब्ज़ सरगोशी
किताबें
ताक में और शेल्फ़ पर
संजीदा उस्तानी बनी बैठीं
मगर सब मुंतज़िर इस बात की
मैं उनसे कुछ पूछूँ
सिरहाने
नींद का साथी
थकन का चारागर
वो नर्म-दिल तकिया
मैं जिसकी गोद में सर रखके
छत को देखता था
छत की कड़ियों में
न जाने कितने अफ़सानो की कड़ियाँ थीं
वो छोटी मेज़ पर
और सामने दीवार पर
आवेज़ाँ तस्वीरें
मुझे अपनाईयत से और यक़ीं से देखतीं थीं
मुस्कुराती थीं
उन्हें शक भी नहीं था
एक दिन
मैं उनको ऐसे छोड़ जाऊँगा
मैं इक दिन यूँ भी जाऊँगा
कि फिर वापस न आऊँगा
मैं अब जिस घर में रहता हूँ
बहुत ही ख़ूबसूरत है
मगर अकसर यहाँ ख़मोश बैठा
याद करता हूँ
वो कमरा बात करता था
 
-जावेद

1 comment: